Monday, October 27, 2008

बहारों का कुछ ऐसा समां बंध गया है ,

बहारों का कुछ ऐसा समां बंध गया है ,
की दर्द हीं दील का दवा बन गया है ,
सपने बीखर रहे बन के रेत हाथों से ,
जो बचा था , कुछ धुंवा कुछ हवा बन गया है |

मंजीलें थीं मेरी तेरे आस पास ,
पर जीसपे साथ चलते थे वो रासता कीधर गया ,
जो ना डरता था ज़माने में कीसी से,
आज ख़ुद क्यों अपने आप से डर गया |

क्यों ये जानना ज़रूरी था की कौन सही , कौन ग़लत है,
अब दूर होकर क्यों पास आने की तलब है,
फीर से पुरानीं गलतियों को दोहराने को जी चाहता है ,
बदले की आरजू है या प्यार की कशीश है |

तुम हीं रुक जाओ की वक्त तो रुकता नहीं ,
क्यों ये पर्वत तो कभी झुकता नहीं ,
मेघ बनके बरस जाओ तुम मुझ पर ,
की ओस की बूंदों से प्यास बुझता नहीं |

तूफ़ान है तूझमें मुझे टूटने बीखर जाने दो ,
इससे अच्छा और क्या मील सकता सीला है ,
बहारों का कुछ ऐसा समां बंध गया है ,
की दर्द हीं दील का दवा बन गया है |

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