Monday, October 27, 2008

हर इक चेहरे को जख़्मों का आईना ना कहो

हर इक चेहरे को जख़्मों का आईना ना कहो
ये जिंदगी तो है रहमत इसे सजा न कहो

जाने कौन सी मजबूरियों का कैदी हो
वो साथ छोड़ गया है तो बेवफा न कहो

तमाम शहर ने नेज़ो पे क्यों उछाला मुझे
ये इत्तेफाक़ था इसे हादसा न कहो

ये और बात है के दुश्मन हुआ है आज मगर
वो मेरा दोस्त था कल तक उसे बुरा न कहो

हमारे ऐब हमें उँगलियों पे गिनवाओ
हमारी पीठ के पीछे हमें बुरा न कहो

मैं वाक़ियात की ज़ंजीर नहीं कायल
मुझे भी अपने गुनाहों का सिलसिला न कहो

ये शहर वो है जहाँ रक्कास भी है 'राहत'
हर इक तराशे हुए बुत को खुदा न कहो।

No comments: